शेख़ हसीना: दो दशकों से सियासत के शीर्ष पर रहने के बाद पतन की कहानी
बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने कई सप्ताह चले छात्रों के हिंसक प्रदर्शनों के राष्ट्रव्यापी अशांति में बदलने के बाद इस्तीफ़ा देकर देश छोड़ दिया है।
रिपोर्टों के मुताबिक़, 76 वर्षीय शेख़ हसीना सोमवार को हेलीकॉप्टर से बांग्लादेश छोड़कर भारत के लिए निकल गईं.
इस बीच हज़ारों प्रदर्शनकारियों ने ढाका में उनके अधिकारिक आवास पर धावा बोल दिया।
इसी के साथ बांग्लादेश की सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री रहीं शेख़ हसीना के राज का भी अंत हो गया. कुल 20 सालों तक शेख़ हसीना ने मज़बूत पकड़ के साथ बांग्लादेश पर शासन किया है।
शेख़ हसीना को दक्षिण एशियाई देश बांग्लादेश की आर्थिक प्रगति का श्रेय दिया जाता है लेकिन हाल के सालों में उन पर तानाशाही के आरोप भी लगे।
सत्ता में कैसे आईं थीं शेख़ हसीना

शेख़ मुजीबुर्रहमान की बेटी हैं शेख हसीना
1947 में पूर्वी बंगाल के एक मुसलमान परिवार में पैदा हुईं शेख़ हसीना को राजनीति विरासत में मिली.
उनके पिता राष्ट्रवादी नेता शेख़ मुजीबुर्रहमान थे. वो बांग्लादेश के संस्थापक और राष्ट्रपिता थे, जिन्होंने 1971 में देश को पाकिस्तान से आज़ाद कराया और देश के पहले राष्ट्रपति भी बने।
उस दौर में शेख़ हसीना स्वयं ढाका यूनिवर्सिटी में एक छात्र नेता के रूप में ख़ुद को स्थापित कर चुकी थीं।
1975 में सैन्य तख़्तापलट के दौरान, मुजीबुर्रहमान और उनके परिवार के अधिकतर लोगों को मार दिया गया था.
सिर्फ़ शेख़ हसीना और उनकी छोटी बहन की जान बची थी क्योंकि उस समय वो विदेश यात्रा पर थीं।
भारत में निर्वासित जीवन बिताने के बाद शेख़ हसीना 1981 में बांग्लादेश लौटीं और अपने पिता के राजनीतिक दल अवामी लीग की नेता बन गईं।
जनरल हुसैन मुहम्मद इरशाद के सैन्य शासन के ख़िलाफ़ उन्होंने अन्य राजनीतिक दलों के साथ मिलकर सड़कों पर प्रदर्शन किया और लोकतंत्र की मांग की।
देश में उठे विद्रोह ने तेज़ी से शेख़ हसीना को राष्ट्रीय आईकॉन बना दिया।
वो सबसे पहले साल 1996 में चुनकर सत्ता तक पहुंचीं. उन्हें भारत के साथ जल-संधि करने और देश के दक्षिण पूर्वी इलाक़े में विद्रोहियों के साथ संधि करने का श्रेय जाता है.
लेकिन इसी समय, उन पर कई सौदों में भ्रष्टाचार करने और भारत के अधिक प्रभाव में होने के आरोप भी लगे।
आगे चलकर, वो साल 2001 में अपनी राजनीतिक सहयोगी से प्रतिद्वंदी बनी बांग्लादेश राष्ट्रवादी पार्टी (बीएनपी) की बेगम ख़ालिदा ज़िया से चुनाव हार गईं।
राजनीतिक परिवारों की वारिस, ये दोनों महिलाएं तीन दशकों तक बांग्लादेश की राजनीति पर हावी रहीं।
इन्हें ‘बैटलिंग बेगम’ भी कहा जाता है. बेगम, उच्च परिवारों की मुसलमान महिलाओं को कहा जाता है।
विश्लेषक मानते हैं कि इन दोनों महिला नेताओं की कड़वी राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के नतीजे में बांग्लादेश में बसों में बम धमाके हुए, लोग अग़वा किए गए और ग़ैर-न्यायिक हत्याएं आम बात हो गईं।
हसीना साल 2009 में फिर से सत्ता में लौटीं. ये चुनाव कार्यवाहक सरकार की निगरानी में हुए थे।
वो एक वाक़ई 'राजनीतिक सर्वाइवर' हैं. वो कई बार जेल में रहीं और अपने जीवन पर हुए कई हमलों से ज़िंदा बच निकलीं।
साल 2004 में हुए एक हमले से उनके सुनने की क्षमता को नुक़सान पहुंचा था।
उन्हें देश से बाहर निकालने के प्रयास भी हुए और वो भ्रष्टाचार के आरोपों में कई मुक़दमों में भी फंसी रहीं।
शेख़ हसीना के शासन वाला बांग्लादेश एक विपरीत तस्वीर पेश करता है. एक समय दुनिया का सबसे ग़रीब देश रहा मुस्लिम बहुल बांग्लादेश, उनके नेतृत्व में 2009 के बाद से विश्वसनीय आर्थिक प्रगति हासिल कर चुका है।
अब बांग्लादेश, इस क्षेत्र में सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, आर्थिक प्रगति के मामले में बांग्लादेश अपने विशाल पड़ोसी देश भारत से भी आगे निकल गया है।
पिछले एक दशक के दौरान बांग्लादेश की प्रति व्यक्ति आय तीन गुना बढ़ चुकी है. विश्व बैंक के अनुमान के मुताबिक़ बीते दो दशकों में बांग्लादेश में ढाई करोड़ लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाला गया है।
बांग्लादेश की आर्थिक प्रगति का श्रेय देश के कपड़ा उद्योग को जाता है. बांग्लादेश के कुल निर्यात का अधिकतर हिस्सा कपड़ा उद्योग से ही है और हाल के दशकों में ये उद्योग तेज़ी से बढ़ा है।
बांग्लादेश का ये उद्योग यूरोप, अमेरिका और एशिया के बाज़ारों को आपूर्ति करता है।
अपने देश के स्वयं के संसाधनों, कर्ज़ और विकास के लिए मदद लेकर, हसीना की सरकार ने कई विशाल आधारभूत ढांचा विकास योजनाएं शुरू की हैं, इनमें गंगा नदी पर 2.9 अरब डॉलर से बनने वाला पदमा पुल भी शामिल है।
सत्ता संभालने के बाद से, शेख़ हसीना के सामने आया सबसे गंभीर संकट ताज़ा विरोध प्रदर्शन ही है. ये प्रदर्शन बेहद विवादित चुनाव नतीजों के बाद हुए हैं. विवादित आम चुनावों में लगातार चौथी बार उनकी पार्टी को चुन लिया गया था.
इस्तीफ़ा देने की बढ़ती मांगों के बीच शेख़ हसीना डटी हुईं थीं. उन्होंने प्रदर्शनकारियों की ‘आतंकवादी’ कहकर आलोचना की. उन्होंने इन ‘आतंकवादियों’ से सख़्ती से निपटने के लिए समर्थन भी मांगा था।
ढाका और देश के दूसरे हिस्सों में प्रदर्शन सरकारी नौकरियों में आरक्षण समाप्त करने की मांग से शुरू हुए थे लेकिन ये व्यापक सरकार विरोधी आंदोलन में बदल गए।
कोविड महामारी के बाद से बांग्लादेश लगातार बढ़ती महंगाई और बढ़ते ख़र्चों से जूझ रहा है. महंगाई आसमान पर है, विदेशी मुद्रा भंडार गिर रहा है और 2016 के बाद से बांग्लादेश का विदेशी क़र्ज़ दोगुना हो चुका है।
आलोचकों ने इसके लिए हसीना सरकार के प्रबंधन को ज़िम्मेदार ठहराया है और आरोप लगाये कि बड़े पैमाने पर हो रहे भ्रष्टाचार की वजह से बांग्लादेश की आर्थिक तरक्की का फ़ायदा सिर्फ़ उन लोगों को पहुंचा जो हसीना की अवामी लीग पार्टी के नज़दीक थे।
आलोचकों का कहना है कि देश की तरक्की लोकतंत्र और मानवाधिकारों की क़ीमत पर हुई है. वो आरोप लगाते हैं कि हसीना के शासन में उनके राजनीतिक विपक्षियों, मीडिया और विरोधियों का दमन किया गया।
बांग्लादेश सरकार और शेख़ हसीना इस तरह के आरोपों को हमेशा ख़ारिज करते रहे।
लेकिन हाल के महीनों में, बीएनपी के कई वरिष्ठ नेताओं को गिरफ़्तार किया गया, उनके साथ सरकार विरोधी प्रदर्शनों में शामिल हज़ारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं और आम लोगों को भी गिरफ़्तार किया गया।
कभी देश में बहुदलीय लोकतंत्र के लिए लड़ने वाली नेता में यह एक उल्लेखनीय बदलाव था.
बांग्लादेश में मानवाधिकार समूहों ने साल 2009 के बाद से सैकड़ों लोगों के ग़ायब होने और ग़ैर न्यायिक हत्याओं को लेकर भी चिंताएं ज़ाहिर की हैं।
शेख़ हसीना की सरकार ऐसे आरोपों को सिरे से ख़ारिज करती रही थी. हालांकि ऐसे आरोपों की जांच करने का इरादा रखने वाले विदेशी पत्रकारों की यात्राओं को भी उनकी सरकार रोकती रही।